
Balram Shukla
Professor in Sanskrit at the University of Delhi. Director, Swami Vivekananda Culture Centre, Tehran-Iran
Address: Sanskrit Department, Arts Faculty, North Campus, University of Delhi.
Delhi-110007
Address: Sanskrit Department, Arts Faculty, North Campus, University of Delhi.
Delhi-110007
less
InterestsView All (37)
Uploads
Papers by Balram Shukla
पौराणिक तथा धर्मशास्त्रीय वाङ्मय में नदियों को एक स्वायत्त व्यक्तित्व दिया गया है। उनके प्रति मनुष्यों का व्यवहार कैसा हो इसके लिए शिष्टाचार तय किये गये हैं। ये शिष्टाचार केवल संकेत तक सीमित न रह कर स्पष्ट निर्देश के रूप में हैं। विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि धर्मशास्त्र द्वारा बताये गये इन नियमों को आधुनिक विज्ञान भी नदियों के स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त आवश्यक समझता है। अत्यन्त दुःखद बात यह है कि तथाकथित धर्म की राजनीति तथा व्यापार की दुरभिसन्धि होने के कारण ये नियम न तो जाने जाते हैं और ज्ञात होने पर भी इनका ठीक ठीक पालन नहीं होता। मानव समाज ने यदि इन शर्तों का सावधानी पूर्वक पालन नहीं किया तो नदियों से मिलने वाले आध्यात्मिक लाभ की कौन कहे उसे उनसे प्राप्त होने वाले भौतिक लाभ भी उसे नहीं मिल सकेंगे।
In the vast Sanskrit Śāstric Literature, we see that philosophers often use grammatical derivation to support their philosophical positions in many ways. Grammarians, when deriving words, generally do not adhere strictly to the philosophical assumptions of a particular school of thought.
We find Jain grammarians, surprisingly, using the pivotal theory of Jain philosophy Anekāntavāda (theory of many-sidedness of reality) as a guiding principle in their grammatical derivations and learning. Almost all Jain grammarians were Jain monks, and because of their focused practice of Jain canons, they intentionally or unintentionally made their grammatical environment closely aligned with their religion. Most of them begin their grammars with an aphorism that conveys the idea, “the derivation of words is only possible through Anekāntavāda.” Accepting various aspects and perspectives of reality is the main proposition of Anekāntavāda. While studying grammatical tradition, we also observe that it shares this view of multiple perspectives towards words and their derivations, which makes grammatical operations manifold. Having a philanthropic attitude towards all Śāstras, grammar cannot be confined to a single way of thinking. In the Mahābhāṣya, Patañjali shows reluctance to adhere to a unidimensional dogmatic presupposition multiple times. This is why Anekāntavāda aligns well with the nature of grammar, and Jain grammarians have successfully introduced this religious principle as a guiding meta-rule for all their derivational processes.
In this paper, we have discussed 1. how the philosophical theory of Anekānta is highly suitable to grammar, 2. how Jain grammarians could demonstrate that both the derivation and learning of words are possible only through Anekāntavāda, 3. whether Jain grammarians, by blending religion with grammar, try to make grammar a means to liberation as Bhartrhari and others have done.
********************************************************************
व्याकरणिक प्रविधि के रूप में अनेकान्तवाद
संस्कृत शास्त्रों की विस्तृत परम्परा में हम देख पाते हैं दार्शनिकों ने अपने मत के समर्थन में व्याकरणिक व्युत्पत्तियों का बारम्बार उपयोग किया है। इसके विपरीत शब्द व्युत्पत्ति के प्रसंगों में वैयाकरण प्रायः दार्शनिक प्राक्कल्पनाओं का आश्रय नहीं लेते हुए दिखाई पड़ते हैं। जैन वैयाकरणों को हम व्याकरणशास्त्रीय व्युत्पत्तियों एवं ज्ञान के सन्दर्भ में आश्चर्यजनक रीति से जैन दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद का प्रमुखता से आश्रय लेते हुए देखते हैं। लगभग सभी जैन वैयाकरण जैनमुनि रहे हैं जिसके नाते उन्होंने जाने अनजाने अपने व्याकरणशास्त्रीय प्रतिपादनों को जैन वातावरण से युक्त बनाया। अनेक वैयाकरणों ने अपने व्याकरण की शुरुआत "सिद्धिः अनेकान्तात्" जैसे सूत्रों से करते हैं। वस्तु को अनेकधर्मात्मक स्वीकार करना अनेकान्तवाद की मूल मान्यता है। व्याकरणशास्त्र भी शब्दों के सम्बन्ध में इसी प्रकार का दृष्टिकोण रखता है इसलिए व्याकरणशास्त्र की अनेक प्रविधियाँ वैकल्पिक होती हैं। शब्दों का प्रयोग विषय विस्तृत एवं विविध है इस कारण व्याकरण शास्त्र अपने आप को किसी विशेष आग्रह में बाँध कर नहीं रख सकता। इस प्रकार अनेकान्तवादी दृष्टि व्याकरण शास्त्र के अतीव अनुकूल है। जैन वैयाकरणों ने इस तथ्य को पहचानते हुए इसे अपने व्याकरणिक विश्लेषणों के मुख्य निदेशक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया है। इस पत्र में निम्नांकित बिन्दुओं पर चर्चा प्रस्तुत की गयी है– क) अनेकान्तवाद एवं व्याकरणशास्त्र की पारस्परिक अनुकूलता, ख) जैन वैयाकरणों के सिद्धिः स्याद्वाद् जैसी मुख्य प्रतिज्ञा का परीक्षण ग) दर्शन को व्याकरण से मिश्रित करके क्या जैन वैयाकरण व्याकरण को मुक्ति में सहायक स्वीकार करना चाह रहे हैं?
मानसिक हिन्द स्वराज के वैतालिक के रूप में प्रख्यात दर्शन शास्त्र तथा भारतीय विचार प्रणाली की प्रसिद्ध शोध पत्रिका ‘उन्मीलन’ पिछले ३६ वर्षों से प्रकाशित हो रही है। यशदेव शल्य तथा मुकुन्द लाठ जैसे विशिष्ट दार्शनिक इस पत्रिका से सम्बद्ध रहे हैं। पिछले अनेक वर्षों से इसका उत्कृष्ट सम्पादन प्रो॰ अम्बिकादत्त शर्मा जी कर रहे हैं। यह पत्रिका हिन्दी माध्यम में उच्चतर दार्शनिक शोध सम्बन्धी पत्रों की प्रस्तुति के लिए कटिबद्ध है।
इसके ३६वें वर्ष के दूसरे अंक में मेरे एक लेख– ॥ वाक्, विचार तथा व्यवहार – भर्तृहरीय दृष्टि॥ को स्थान मिला है। यह एक संग्रहात्मक लेख है। आचार्य भर्तृहरि को वर्षों तक विविध गुरुओं की सन्निधि में पढ़ते हुए तथा कक्षाओं में पर्याप्त समय तक छात्रों को पढ़ाते हुए जो समझ विकसित हो पाई है, उनका यथा सम्भव संग्रह इस लेख में किया गया है। इस लेख में भर्तृहरीय भाषा दर्शन के जो प्रमुख सिद्धान्त संक्षेपतः चर्चित हुए हैं वे हैं– १.भाषा का माहात्म्य, २.भाषा के स्तर, ३.भारतीय शब्दचिन्तन के प्रमुख प्रमेय, ४.शब्द का वास्तविक स्वरूप (स्फोट), ५.शब्द की वाचकता में ध्वनि की भूमिका, ६.पदवाद तथा वाक्यवाद, ७.अर्थ का स्वरूप (प्रतिभा), ८शब्द–अर्थ सम्बन्ध, ९.वाणी का मौलिक स्वरूप (शब्द ब्रह्म) तथा १०.शब्दयोग।
इसमें जो कुछ संगृहीत है वह परम्परा का है जिसे गुरुओं के माध्यम से समझने का प्रयास किया गया है। जहाँ समझ में नहीं आया है या अशुद्ध समझा गया है वहाँ अपनी अल्पता है। इस बृहद् लेख को प्रो॰ गिरीश्वर मिश्र जी की प्रेरणा से भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में तैयार किया गया था और जब यह प्रकाशित हो रहा है तब मैं तेहरान के स्वामी विवेकानन्द संस्कृति केन्द्र में हूँ।
मोणं तु तस्स सरणं नीसरणं अहव परिसाए ॥
(यः संस्कृतं न जानाति सुविशुद्धप्राकृतम् अपि वक्तुं वै।
मौनं तु तस्य शरणं निःसरणम् अथवा परिषदः॥)
=जो व्यक्ति संस्कृत के साथ प्राकृत का प्रयोग नहीं कर पाता उसे गोष्ठियों में या तो मौन रहना चाहिए नहीं तो सभा से निकल ही जाना चाहिए
(छप्पण्णयगाहाओ ४५)
--- in शाश्वती (डॉ॰ सन्तोष कुमार पाण्डेय स्मृतिग्रन्थ), 473-499. [ed.] Dr. Shailesh Kumar Mishra et c., Varanasi : Chowkhamba Surabharti Prakashan. ISBN- 978-93-94829-29-9
शोध का वर्ण्य संक्षेप यह है–
"काव्यशास्त्रियों ने व्यञ्जना की सिद्धि के लिए श्रम इसलिए किया है यह प्रतिपादित हो सके कि ध्वनि रूपी काव्यार्थ अभिधा, लक्षणा आदि इतर शक्तियों से प्राप्य नहीं है। व्यञ्जना का विचार अलंकार शास्त्र के अन्तर्गत होने के कारण इसके उदाहरण केवल काव्यात्मक वाक्यों तक ही परिसीमित दिखते हैं। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यञ्जना शक्ति के विषय केवल कवितागत वाक्य ही हो सकते हैं, सामान्य वाक्य नहीं? इस हेतु कविता से इतर वाक्य प्रयोगों की स्थितियों पर सम्यक् विचार अपेक्षित है। इसे ध्यान में रखकर प्रस्तुत शोधपत्र में मानवीय सम्भाषण में प्रयुक्त विविध प्रकार के वाक्यों में व्यञ्जना की प्रयोज्यता का विश्लेषण किया गया है और इस प्रस्ताव के सम्भावित विरोध या सीमा की भी परीक्षा की गई है तथा उनके परिहार का यत्न किया गया है। विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि व्यञ्जना की व्याप्ति केवल विशिष्ट काव्यात्मक वाक्यों तक ही सीमित न रहकर सभी प्रकार के भाषिक वाक्यों तक विस्तृत है।"
इस शोधलेख में एक महत्त्वाकाङ्क्षी अभिमत सामने रखा गया है। वह यह कि व्यञ्जना भी अभिधा की भाँति सभी वाक्यों में आवश्यक रूप से प्रवृत्त होती है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वाक्य के एक या अनेक व्यङ्ग्यार्थ होते ही हैं। व्यञ्जना की प्रवृत्ति के लिए वाक्य का काव्यात्मक होना अनिवार्य नहीं है। इस अभिमत की यथाशास्त्र विवेचना करके इसमें सम्भावित विरोधों को उठाकर उसका परिहार करने का यत्न भी किया गया है।
समय के साथ होते रहने वाले परिवर्तनों के साथ भारतीय परम्परा में विभिन्न युक्तियों और प्रविधियों का उपयोग करके अपने आपको निरन्तर नवीन और युगानुकूल बनाने की सामर्थ्य हमेशा से विद्यमान रही है। इसके लिए उसके पास 1.परम्परा का आत्मविस्तार, 2.परम्परा की परिधि का संक्षेपण, 3.पारम्परिक कोटियों की पुनःपरिभाषा तथा उनका पुनर्व्यवस्थापन तथा 4. प्रचलित आचारों का वर्जन, ये प्रमुख प्रविधियाँ रही हैं।
प्रस्तुत शोधलेख में इन्हीं प्रविधियों को पहचान कर उन्हें एक ढाँचे में रखने का प्रयास किया गया है।
परम्परा के रूपान्तरण, परिवर्तन तथा परिवर्धन के कारण आपाततः उनके बदले हुए रूपों को देखकर मात्र बाहरी स्वरूप देख पाने वाले लोगों को लगता है कि परम्परा नष्ट हो गयी लेकिन ध्यान से देखने पर हमें यह बात पता चल जाती है कि वही परम्परा नये नये रूप धारण करके पुनः पुनः उपस्थित हो रही है। यही इसकी सनातनता है।
लेख में उपर्युक्त प्रविधियों के अतिरिक्त अर्वाचीन युग के महनीय ज्ञान पुरुषों का दिङ्मात्र निदर्शन किया गया है तथा प्राचीन शास्त्रों का वर्तमान काल में हुए विकास पर ध्यान दिलाया गया है। वर्तमान काल में भारतीय ज्ञान परम्परा के पुनरुत्थान के महत्त्वपूर्ण आयामों में उल्लेखनीय हैं - संस्कृत की सामग्री का लोकभाषाओं में रूपान्तरण, विविध पुस्तकालय, शोध संस्थाएँ तथा उनके द्वारा पाण्डुलिपियों का सूचीकरण, गौरवग्रन्थों का पुनरुद्धार एवं पुनःप्रवर्तन, भारतीय ज्ञान का पश्चिमी विद्वानों से सम्पर्क, तथा प्रकाशन अभियान।
साथ ही इस परम्परा की जीवन्तता में बड़ा प्रमाण है इसके अर्वाचीन काल में हुए 2 बड़े सफल – नवजागरण तथा स्वतन्त्रता अन्दोलन। इन दोनों आन्दोलनों के अन्तःशक्ति के रूप में भारतीय ज्ञान परम्परा की चर्चा की गयी है।
अन्त में भारतीय परम्परा में विद्यमान विश्वदृष्टि की चर्चा है जिससे भारतीय सभ्यता पूरे विश्व को दिशा देने में समर्थ हो सकती है। इसमें से हैं– समस्त अस्तित्व की पारस्परिक निर्भरता और आतंरिक समानता, लोभ का निरसन, धर्मानुकूल आचरण, ज्ञान तन्त्र की स्थापना, वैचारिक एकाधिपत्य का निरादर तथा मनुष्य के लिए उच्चतम सम्भावना की तलाश, आदि।
संस्कृत और ‘जनभाषाओं’ अर्थात् प्राकृत या अपभ्रंश और उनसे उद्भूत भारतीय भाषाओं में जो प्रतिस्पर्धा और वैर का भाव हमारे आधुनिक विद्वान् दिखाते रहते हैं उसका विचार, वाङ्मय की भारतीय परिकल्पना में नहीं था।
The present paper endeavors to trace the ample presence of elements of Indian spiritual tradition in Maulana Jalaluddin Rumi’s works and views him as a confluence of the Indo-Islamic culture and spiritualism.
इस ग्रन्थ में निम्न लेख भी संकलित है –
छन्दःसमीक्षागत लक्षणों की नवीनता एवं उसके निहितार्थ
संस्कृत के पारम्परिक छन्दःशास्त्र में वर्णवृत्तों को लक्षित करने के लिए अपनायी जाने वाली ८ गणों वाली प्रविधि बहुत ही प्रचलित है। उसने संस्कृत के छन्दःशास्त्र का सरलीकरण किया है। लेकिन बहुत विचारणीय दोष भी हैं। फ़ारसी छन्दःशास्त्र को पढ़ते हुए मुझे ये दोष बहुत स्पष्ट हो रहे थे। मेरे विचारों को समर्थन तब मिला जब मैंने समीक्षाचक्रवर्ती महापण्डित मधुसूदन ओझा जी की छन्दःसमीक्षा पढ़ी जिसमें इन दोषों दूर करने के लिए उन्होंने लक्षणों को देने की परिवर्तित शैली का आश्रय लिया है।
उन्होंने संस्कृत वृत्तों का लक्षण देते हुए पारम्परिक लक्षण ग्रन्थों के विपरीत वर्णगणों के अतिरिक्त मात्रा गणों का उपयोग भी किया है। उनका यह उपक्रम केवल लक्षणों को सूत्रात्मक रूप से संक्षिप्त करना मात्र ही नही है, अपितु इसके द्वारा उन्होंने संस्कृत छन्दःशास्त्र की युगों से चली आ रही अल्पताओं को दूर करने का प्रयास भी किया है। प्रस्तुत पत्र में उनके द्वारा उपयुक्त इसी प्रकार की अनेक प्रविधियों के निहितार्थों के परीक्षण का प्रयास किया गया है।
विद्वानों से अनुरोध है कि वे इसपर दृष्टिपात करें तथा अपने मन्तव्य से अवगत कराएँ।
The paper is published in 24-25 th number of "Prasanga" edited by Shmbhu Badal. ISSN : 2348-6414
This paper introduces this important book and its technique of translation.
– पञ्चतन्त्र की विश्वयात्रा के कुछ मुख्य पड़ाव –
एकस्य तिष्ठति कवेर्गृह एव काव्यम् अन्यस्य गच्छति सुहृद्भवनानि यावत्।
न्यस्याविदग्धवदनेषु पदानि शश्वत् कस्यापि सञ्चरति विश्वकुतूहलीव॥
(किसी कवि की कविता उसके घर तक ही रह जाती है जबकि किसी
की कविता मित्रों के घरों तक चली जाती है। लेकिन किसी किसी की कविता अरसिकों के मुखों पर पैर रखकर ऐसे निकल पड़ती है मानों उसे पूरे विश्व का भ्रमण करने की इच्छा हो। )
अपने विभिन्न भारतीय संस्करणों के अलावा पञ्चतन्त्र का पूरी दुनिया में भ्रमण भारतविद्या के शोधकर्ताओं के बीच एक चर्चित विषय रहा है। प्रस्तुत शोधपत्र में पञ्चतन्त्र के कुछ प्रमुख वैश्विक संस्करणों तथा उनकी विशेषताओं पर संक्षिप्त चर्चा की गयी है।
With the conquest of India, Muslims followed the Islamic tradition of translating knowledge to their own tongues from all possible directions. And because of this there was a flood of Persian translation of Sanskrit works in early Moghul period.
While surveying the translated works from Persian to Sanskrit one generally doesn‟t feel encouraged at least regarding the number of this type of works. There may be so many historical and attitudinal factors to be accounted for the paucity of interest in Sanskrit Pundits towards Persian works. It is interesting to note that the first translation of this kind was done not by a Hindu Sanskrit Pundit but by a Zorostrian, who translated in first half of the 14 century some Zorostrian books into Sanskrit. The second important work was Śrīvara‟s Kathakautukam, a translation of Jami‟s Yūsuf and Zulaikha into Sanskrit in the second half of the 15th century. Śrīvara is identical with the writer of another recension of the Rajtarangini. The introduction of this work includes various important clues about contemporary history especially regarding the acceptance of the Muslim rule in Hindu high class populace.
In the introduction Śrīvara takes a vow to abide by the sequence and content of the original work. Unlike other Sanskrit translations of Persian works (such as e.g. the Sarvadeshavrittantasansgraha - a translation of the Akbarnama by Mahesh Thakkur) his translation in verses is not verbatim or insipid. As Śrīvara was a good Sanskrit poet too, he has very aptly utilised the poetic competence of the Sanskrit style in his rendering. For this reason, his translation caters the interest of a traditional Sanskrit student, too.
As this work forms the first example of translating any literary work of Persian into Sanskrit with an elegant diction and style, it bears quite an important place in the entire tradition of Perso-Indian literature.